कविता = खादी
⭐ कविता = ( खादी )
एक खुदा के हम सारे बंदे !
धर्म की आड़ में खुल गए धंधे !!
खेल रहे हैं खेल यह गंदे !
अवाम में हो गए सारे नंगे !!
कुर्बानियों से खिलवाड़ हुआ !
देश तभी दो - फाड़ हुआ !!
धर्म तो बस बदनाम हुआ !
लाशों पर व्यापार हुआ !!
खादी में घुस गए थे गुंडे !
हो न पाए वो हैं नंगे !!
एक खुदा के हम सारे बंदे !
धर्म की आड़ में खुल गए धंधे !!
धर्म को जिसने बदनाम किया !
उसको ही हमने सम्मान दिया !!
जातिवाद के बन गए फंदे !
वोट बैंक के सारे धंधे !!
अपने ही घर में बट गए बंदे !
ऐसे हैं इनके हथकंडे !!
शहादत भी कैश करी !
खूब दबाकर ऐश करी !!
अब रोज़गार हैं इनके मंदे !
कब दिन आएंगे इनके चंगे !!
एक खुदा के हम सारे बंदे !
धर्म की आड़ में खुल गए धंधे !!
देश की ख़ातिर जो चले गए !
वो लोग भी यारों ठगे गए !!
जातिवाद की क्यों दुकान हुई !
धर्म से ही जब दो - फाड़ हुई !!
भारत जोड़ो पर हैं निकले !
पहले दिल क्यों न पिंगले !!
काम न आए उनके फंदे !
समझ में आ गए इनके धंधे !!
इनके गले में इनके फंदे !
अपने पंगे में पड़ गए पंगे !!
एक खुदा के हम सारे बंदे !
धर्म की आड़ में खुल गए धंधे !!
कॉमन वेल्थ गेम करवाए सरेआम डाके डलवाए !
मल मल गंगा में अब यह नहाएं !!
मंदिर जाएं मस्जिद जाएं !
अब तो पूरा जोर लगाएं !!
कभी है टोपी कभी जनेऊ !
मदारी देखो खेल दिखाए !!
मोहब्बत की दुकान खोलने !
अब यह हमारी बस्ती आए !!
धंधे में जब पड़ गए मंदे !
अब बोले यह,हर हर गंगे !!
एक खुदा के हम सारे बंदे !
धर्म की आड़ में खुल गए धंधे !!
विपिन बंसल
सीताराम साहू 'निर्मल'
07-Feb-2023 07:31 PM
👏👍🏼
Reply
Varsha_Upadhyay
06-Feb-2023 05:08 PM
बेहतरीन
Reply
Renu
06-Feb-2023 03:58 PM
👍👍🌺
Reply